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दमा - ब्रोंकाइटिस (Asthma): लक्षण, कारण, उपचार और आहार |

दमा ब्रोंकाइटिस
(Asthma & Bronchitis)

दमा ब्रोंकाइटिस (Asthma & Bronchitis)लक्षण, कारण, उपचार और आहार |

दमा तथा ब्रोंकाइटिस-दोनों एक ही जाति के रोग हैं। हमलोग बाहर से जो श्वास नाक के रास्ते से लेते हैं, वह गलकोष (Pharynx) और वायुनली (Windpipe) पार करके श्वास नली और छोटी श्वास नलियों (Small bronchial tubes) में से होकर भीतर फेफड़ों में पहुंचती है और एक के बाद दूसरे अंश को पार करते हुए शरीर से नाक के द्वारा ही बाहर निकल जाती है। समय-समय पर हमारी छोटी श्वास नलियों के छिद्र इस प्रकार बलगम से बंद हो जाते हैं कि इनके भीतर होकर वायु के आने-जाने में बड़ी असुविधा होती है। सूक्ष्म श्वास नलियों के इसी खींचनयुक्त संकोच (Spasmodic contraction) को ‘दमा’ कहते हैं।

इसका हमला अक्सर रात्रि के दूसरे प्रहर में होता है। रोगी श्वास न ले पाने के कारण जाग जाता है, बहुत घबराहट अनुभव करता है, लेट नहीं पाता और उसे बैठकर रात गुजारनी पड़ती है, जो उसे बुरी तरह थका देती है। छाती में रक्त का अधिक जमाव हो जाता है और शरीर पसीना पसीना हो जाता है।

फेफड़े कमजोर होने से पाचन, हृदय तथा स्नायुमंडल दुर्बल हो जाते हैं। शरीर अपने विकार को पूरी तरह बाहर नहीं निकाल पाता, छाती तथा श्वास नलियां पूरी तरह बलगम से जाम रहती हैं। तेज चलने, सीढ़ियां चढ़ने तथा थोड़ा-सा श्रम करने से श्वास फूलना इस रोग के लक्षण हैं। इस रोग से मानसिक तनाव भी रहता है और रोगी आत्मविश्वास भी खो देता है।

समय-समय पर दमा तथा श्वास नलियों की पुरानी सूजन (Chronic bronchitis) एक साथ मिली हुई होती हैं। श्वास नली अवरुद्ध हो जाती है। इसे ब्रोंको अस्थमा (Broncho Ashthma) कहते हैं। दमे की सभी अवस्थाओं में श्वास नली दोषयुक्त तथा दुर्बल रहती है। यह रोग रक्त के शुद्ध न होने के कारण होता है। इसलिए इस रोग के तीन बड़े कारण हैं:

1. शरीर की दोषयुक्त अवस्था,

2. स्नायुओं की गड़बड़ी

3. श्वास नली की दुर्बलता।

इसलिए समूचे शरीर को दोष से मुक्त करने के साथ-साथ स्नायुमंडल और श्वास नली को सबल तथा स्वस्थ करना व उनकी उत्तेजना को मिटाना ही दमे तथा ब्रोंकाइटिस की मुख्य चिकित्सा है।

उपचार:

यदि 3-4 गिलास पानी पीकर कुंजल हो जाए, तो अति उत्तम है। नहीं तो नेति का अभ्यास प्रतिदिन करें। सफेदे के पत्तों का भाप दिन में दो बार लें। उसके बाद छाती तथा पीठ पर तेल से मालिश तथा थपथपाहट करें। इसके साथ छाती तथा पीठ पर गर्म-ठंडा सेंक करना चाहिए। 3 मिनट गर्म, एक मिनट ठंडा, गर्मियों में 2 मिनट गर्म, 2 मिनट ठंडा। पहले दिन छाती पर और दूसरे दिन पीठ पर गर्म-ठंडा सेंक करें।

गर्म पांव का स्नान भी छाती को साफ करता है। सर्दियों में एक घंटा धूप में स्नान तथा शरीर की तेल से मालिश लेकर हल्के गर्म पानी से स्नान करें। यदि आसन हो सकते हों, तो कमर चक्रासन, वज्रासन, शलभासन, पादोत्तानासन, पवनमुक्तासन, मकरासन व मत्स्यासन का आराम करते हुए अभ्यास करें। जैसे-जैसे शक्ति आए, वैसे-वैसे आसनों को बढ़ाएं।

प्राणायाम में भस्त्रिका के व्यायाम तथा कपालभाति का अभ्यास करें और आधे घंटे की योग निद्रा करें। शरीर को जितना शिथिल तथा शांत करेंगे, उतनी ही जल्दी रोग दूर होगा।

आहार:

इस रोग में सबसे अधिक ध्यान अपने भोजन पर देना होगा। उपचार में तो थोड़ी बहुत ढील चल सकती है, परंतु भोजन में नहीं। फेफड़े के रोगों में कफ रहित आहार की व्यवस्था करनी होती है। कम-से-कम 5-6 महीने तक इसे लेना जरूरी है।

7 बजे: नीबू शहद गर्म पानी।

9 बजे: किशमिश, मुनक्का तथा अंजीर को रात में धोकर थोड़े पानी में भिगो लें। नाश्ते में अदरक, काली मिर्च तथा इलायची की चाय के साथ इन्हें लें।

11.30 बजे: किसी सब्जी या फल का रस।

1.30 बजे: फल, उसके बाद सब्जी का सूप या सलाद और उबली सब्जी।

शाम 4.00 बजेः फल का रस (संतरा, मौसमी, गाजर, सेब, अनार आदि)।

6.00 बजे: नीबू शहद गर्म पानी। यदि उसके साथ आवश्यक समझें, तो भीगी हुई किशमिश, मुनक्का, अंजीर या 10 खजूर लें।

7.30 बजे: सब्जी का सूप, कोई फल।

9.30 बजे: अदरक, इलायची वाली चाय।

यदि इस भोजन पर रोगी एक-दो महीने गुजार दे, तो बहुत लाभ मिलेगा। पहले सप्ताह में केवल नीबू शहद-पानी और सब्जी का सूप लें तथा उसके बाद ऊपर वाला भोजन ले। इससे थोड़ी कमजोरी होगी, जिससे श्रम वाले काम नहीं हो सकेंगे। यह भोजन पूरी शक्ति देगा, क्योंकि इसे पचाने में ताकत खर्च नहीं होगी और इससे कफ भी नहीं बनेगा। इसके बाद 3-4 महीने दोपहर में सब्जी, चपाती (चोकर और साग वाली) तथा सलाद लें। बाकी समय वही भोजन लें।

दही इस रोग में वर्जित है। आलू केवल सूप में सब्जियों के साथ डाल सकते हैं। अरवी, आलू, भिंडी, गोभी, मैदे की चीजें वगैरह नहीं खानी चाहिए।

सूप में कभी सब्जियों का सूप, जिसमें टमाटर भी डालें और कभी काले चने का सूप लें। जब आप एक समय भोजन पर आ जाएं, तो चार सप्ताह बाद फिर चपाती छोड़कर एक सप्ताह बिताएं।

रात में सोते समय विशेष ध्यान रखें। बंद कमरे में न सोएं, मुंह और सिर ढककर न सोएं। शरीर पर आवश्यकतानुसार कपड़ा रखें, पांव को गर्म रखें। दाईं या बाईं करवट अपनी सुविधानुसार सोएं। बाईं करवट सोना अधिक अच्छा रहता है।